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पानीपत का तीसरा युद्ध: – मराठा v/s अब्दाली

Writer's picture: Sushil RawalSushil Rawal
पानीपत का तीसरा युद्ध

अब्दाली भाऊ सदाशिव राव

इतिहास ने हमें बहुत कुछ दिया है… कुछ बहुत अच्छा, तो कुछ बहुत बुरा!

जहां अपने किस्सों से इतिहास ने हमें गौरवान्वित किया है, तो वहीं कुछ किस्से हमारे दिल में नासूर बन कर रह गए हैं. इतिहास ने अपने आंचल में इसी तरह के एक किस्से को सहेज रखा है, जिसे सुनते ही धमनियों में बहते रक्त की गति सामान्य से कहीं अधिक हो जाती है.

यह घटना थी 18वीं सदी में लड़े गए सबसे विनाशकारी युद्धों में से एक पानीपत का तीसरा युद्ध, जिसने एक दिन में हज़ारों योद्धाओं को काल का ग्रास बना दिया. तो आइये जानते हैं इस विनाशक युद्ध से जुड़े कुछ पहलुओं को–

आखिर क्यों, कब और किसके बीच लड़ा गया युद्ध!

अठारहवीं सदी की शुरुआत हो चुकी थी, औरंगज़ेब की मृत्यु के उपरांत वर्षों से भारत की ज़मीं पर सीना ताने खड़ा मुग़ल साम्राज्य अब घुटनों पर आ चुका था. दूसरी तरफ मराठाओं का भगवा परचम बुलंदी पर लहरा रहा था. पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में राजपुताना, मालवा अथवा गुजरात के राजा मराठों के साथ आ मिले थे.

मराठों के लगातार आक्रमणों ने मुग़ल बादशाहों की हालत बदतर कर दी थी. उत्तर भारत के अधिकांश इलाके, जहां पहले मुग़लों का शासन था, वहां अब मराठों का कब्ज़ा हो चुका था. 1758 में पेशवा बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजी राव ने पंजाब पर विजय प्राप्त कर मराठा साम्राज्य को और अधिक विस्तृत कर दिया, किन्तु उनकी जितनी ख्याति बढ़ी, उनके शत्रुओं की संख्या में भी उतनी ही बढोत्तरी हुई.

इस बार उनका सीधा सामना अफगान नवाब अहमद शाह अब्दाली के साथ था. अब्दाली ने 1759 में पश्तून अथवा बलोच जनजातियों को एकत्रित कर सेना का संगठन किया. साथ ही पंजाब में मैराथन की छोटी-छोटी टुकड़ियों से लड़ते हुए विजय प्राप्त की. इसी तरह अब्दाली अपनी सेना के साथ आगे बढ़ता रहा. अंततः 14 जनवरी 1761 को पानीपत में अब्दाली के नेतृत्व में अफगान सेना व मराठों के मध्य 18वीं सदी का सबसे भयावह युद्ध लड़ा गया.

मराठा साम्राज्य का विस्तार

सन 1707 के बाद छत्रपति शिवाजी द्वारा देखा गया सम्पूर्ण भारत पर मराठा साम्राज्य के अधिपत्य का स्वप्न अब पूर्ण होता प्रतीत हो रहा था. 1758 में मराठाओं ने दिल्ली सहित लाहौर पर कब्ज़ा कर लिया तथा तैमुर शाह दुर्रानी को वहां से खदेड़ दिया. अब मराठा साम्राज्य की हदें उत्तर में सिंधु एवं हिमालय तक अथवा दक्षिण में प्रायद्वीप के निकट तक बढ़ गयी थीं.

यह मराठों की सर्वोच्च उपलब्धि थी. उन दिनों मराठा साम्राज्य की कमान पेशवा बाजीराव के पुत्र बालाजी बाजीराव के हाथों में थी. बाला जी ने अपने पुत्र विश्वास राव को मुग़ल सिंहासन पर बैठाने का मन बना लिया था. अभी तक नाममात्र के लिए दिल्ली पर मुगलों का शासन था और वे सभी मराठों के विस्तृत होते हुए साम्राज्य को देख कर भयभीत थे.

अहमद शाह अब्दाली का भारत आगमन

1758 में पंजाब पर किए गए हमले के बाद लाहौर तक अपना कब्ज़ा करने के बाद मराठों ने तैमूर शाह दुर्रानी को खदेड़ दिया. तैमूर शाह अफगानिस्तान के शासक अहमद शाह अब्दाली का पुत्र था. अब्दाली को यह बात नागवार गुज़री अथवा उसने भारत पर हमले का मन बना लिया. सबसे पहले उसने पंजाब के उन जगहों पर हमला किया, जहाँ मराठा फौजें कम संख्या में थीं. उसके बाद वो अपने लश्कर के साथ आगे बढ़ा.

समय के साथ मुग़ल शासक दो भागों में बंट गए थे. एक वो जो भारतीय मुस्लिम थे, अथवा एक वो जो बाहर से आकर यहाँ शासन कर रहे थे. मराठा भारतीय मूल के मुसलमानों के पक्ष में थे. अब बाहरी मुसलमान शासक किसी विदेशी सहायता की प्रतीक्षा में थे, जो उन्हें अहमद शाह अब्दाली के रूप में प्राप्त हुई.

अहमद शाह ने पंजाब, कश्मीर अथवा मुल्तान पर कब्ज़ा ज़माने के बाद दिल्ली की राजनीति में अपनी दिलचस्पी दिखाई.

जिनकी सहायता की… वहीं निकले गद्दार!

मराठों द्वारा अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ़ जंग का ऐलान किया जाना इतिहास में एक निर्णायक घटना बन गयी. मराठों ने न केवल अब्दाली को पराजित करने की योजना बनाई थी, अपितु उन्होंने बंगाल जाकर बढ़ती जा रही ब्रिटिश ताकतों को रोकने का भी मन बना लिया था.

अगर यह सम्भव हो पता तो शायद ब्रिटिश साम्राज्य का अंत उसके उदय से पूर्व ही संभव था. किन्तु अपनी ही कुछ कमियों के कारण मराठा अन्दर ही अन्दर कमज़ोर पड़ते जा रहे थे. कहने के लिए कुछ मुग़ल शासक मराठों के साथ थे, किन्तु उनकी वफ़ादारी हमेशा संदेहपूर्ण रही.

दूसरी तरफ छत्रपति शिवाजी के समय मराठों के राजपूतों से बहुत घनिष्ट सम्बन्ध थे, किन्तु 1750 के बाद मराठा राजपूतों के आपसी झगड़ों में हस्तक्षेप कर के किसी एक का पक्ष लेने लगे तथा इस तरह इन्हें दूसरे पक्ष की नाराज़गी झेलनी पड़ी. राजा सूरजमल मराठों के कट्टर समर्थक, किन्तु जब उन्होंने दिल्ली का गवर्नर बनने की इच्छा ज़ाहिर की तब मराठों ने उन्हें छोड़ शुजाउद्दौला को चुन लिया. इस कारण राजा सूरजमल का मोह भंग हो गया.

शुजाउद्दौला का पक्ष लेने के मराठों के पास दो कारण थे. पहला यह कि उनके पास 50,000 अश्वारोहियों की मजबूत सेना थी. दूसरा यह कि शुजाउद्दौला शिया मुस्लिम थे. वह अफ़गानी सुन्नियों के पक्ष में कभी नहीं जा सकते थे. हालांकि, मराठों का अनुमान उस समय गलत साबित हुआ, जब अब्दाली के इस्लामिक एकता की बात से सहमत होकर शुजाउद्दौला उसके पक्ष में हो गए.

दोनों पक्षों को मिली बाहरी सहायता

14 अप्रैल 1760 को मराठा सेना भाऊ सदाशिव राव के नेतृत्व में पुणे से दिल्ली की ओर प्रस्थान हुई. यहाँ से प्रस्थान करते समय मराठा सैन्यबल में 50,000 पैदल सैनिक थे. आगे के सफ़र में जैसे-जैसे मराठों को अपने सहायकों की मदद मिली, वैसे-वैसे उनकी संख्या बढ़ती गयी. महेंदले, शमशेरबहुर, विंचुरकर, पवार बड़ोदा के गायकवाड़ और मानकेश्वर जैसी अनुभवी सेनाएं ने मराठों की ताक़त को दुगना कर दिया.

इब्राहिम खान गर्दी का भी मराठों की ओर से इस युद्ध में विशेष योगदान रहा. गर्दी के फ़्रांस में निर्मित रायफलों के साथ 8000 सैनिक जो फ़्रांसिसी प्रशिक्षण के द्वारा प्रशिक्षित थे, वह मराठों के साथ आ मिलीं. गर्दी के पास 200 उत्कृष्ट बंदूकें तथा युद्ध तोपें भी थीं, जिनका उन दिनों विशेष महत्व था.

मई और जून के बीच जब मराठा आगरा पहुंचे तब मल्हारराव होलकर तथा जुनकोजी सिंधिया भी अपनी सेनाओं के साथ मराठा सेना में शामिल हो गए. इसी कड़ी में मराठा सेना जब दिल्ली पहुंची, तब उनकी सैन्यशक्ति 2 लाख थी. मुग़ल सम्राट मराठों की सहायता के लिए संधिबद्ध थे. दूसरी तरफ दिल्ली में मराठों के बहुत कम शुभचिंतक थे. असल में वे मराठों के बढ़ते वर्चस्व से खुश नहीं थे.

इसका फायदा उठाते हुए नजीब खान जैसे बादशाहों ने तो अब्दाली को विशेष रूप से आमंत्रित किया था. 1739 में भी मुग़ल नेताओं द्वारा नादिर शाह को इसी तरह आमंत्रित किया गया था, किन्तु नादिर शाह ने भारत को लूटते वक़्त हिन्दू मुस्लिम में कोइ भेदभाव नहीं किया. साथ ही मुग़ल सम्राट का मयूर मुकुट अथवा कोहिनूर हीरे सहित लगभग 100 करोड़ की सम्पति भारत से लूट कर ले गया.

दिलचस्प बात तो यह थी कि अब्दाली ने केवल लूट के मंसूबे के साथ भारत में कदम नहीं रखे थे, अपितु उसका सपना दिल्ली के सिंहासन को मुगलों के हाथों छीनना था. इसी के तहत उसने उत्तरी दिल्ली में बसे हुए अफगानियों को अपनी तरफ कर लिया, जोकि इस युद्ध में फायदेमंद साबित हुआ.

मकरसंक्रांति के दिन रण में मृत्यु का तांडव!

14 जनवरी 1761 मकरसंक्रांति के दिन पानीपत के मैदान में दोनों सेनाएं आमने-सामने आयीं. उसके बाद रण में शुरू हुआ मृत्यु का तांडव. इब्राहिम गर्दी की वेशेष बंदूकों अथवा तोपों ने रणभूमि में हाहाकार मचा रखा था. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मराठा आज नया इतिहास लिखेंगे, किन्तु शाम होते-होते युद्ध की स्थिति पूरी तरह से बदल चुकी थी.

दोनों पक्षों के लगभग 40,000 सैनिक काल के ग्रास बन चुके थे. पेशवा के पुत्र भाऊ विश्वासराव, जसवंत राव पवार तथा तुकोजी सिंधिया सहित कितने योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए. इस युद्ध के विनाश का अनुमान आप इस बात से लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र का कोई भी ऐसा परिवार नहीं था, जिनका कम से कम एक सगा-संबंधी इस युद्ध में मारा न गया हो.

मराठों की ओर से मरने वाले केवल सैनिक ही नहीं, अपितु आम नागरिक भी थे, जो सेना के साथ तीर्थयात्रा के लिए जा रहे थे. मराठों की हार के बाद अब्दाली ने अपनी सेना के साथ इन नागरिकों को मारते हुए आगे बढ़ना शुरू कर दिया.

पुरुषों को मार दिया गया तथा महिलाओं अथवा बच्चों को गुलाम बना लिया गया.

इसलिए जीतते-जीतते हार गए मराठा

अगर आप सोचते हैं कि अब्दाली की सेना ने मराठों को परास्त किया, तो आपका ऐसा सोचना पूर्णरूप से सही नहीं है. मराठों को अब्दाली की सेना ने नहीं, अपितु ठंड ने हराया था. मराठा सेना युद्धस्थल के मौसम से अंजान थी तथा पतली धोती और कुरता पहन कर हथियारों के साथ जंग के मैदान में कूद पड़ी, जिसका परिणाम यह हुआ कि सर्दी से उनकी हालत पस्त हो गयी. जबकि, अब्दाली को इस मौसम का पूरा अनुमान था. उसने अपनी सेना को मौसम के अनुकूल पोशाक पहनाकर युद्ध में उतारा था.

दूसरी तरफ सदाशिव भाऊ की भावुकता ने मराठों की पराजय पहले ही सुनिश्चित कर दी थी. हुआ यूं था कि युद्ध मैदान में विश्वासराव भाऊ को गोली लग गयी. विश्वासराव भाऊ सदाशिव राव के अत्यंत प्रिय थे. उन्हें इस अवस्था में देखकर सदाशिव राव बिना कुछ सोचे समझे अपने हाथी से उतर कर घोड़े पर सवार होकर विश्वासराव के पास चले गए.

इधर, सदाशिव राव भाऊ के हाथी पर उन्हें ना पाकर मराठा सेना भयभीत हो गयी. उन्हें लगा कि भाऊ वीरगति को प्राप्त हो गए. परिणाम स्वरूप हार की ओर बढ़ती अब्दाली की सेना में नया जोश आ गया और वो फिर से उठ खड़े हुए.

इस युद्ध में एक दिन में तकरीबन 40,000 योद्धा मरे गए, जो किसी भी सामान्य युद्ध में मरने वाले योद्धाओं की संख्या से बहुत ज़्यादा थे. भारत की दुर्गति का हमेशा से यही कारण रहा है कि यहाँ राजाओं अथवा बादशाहों ने अपना-अपना फ़ायदा सोचा तथा बाहरी दुश्मनों को पनाह दी.

इसके विपरीत अगर शुरुआत से सभी एकजुट हो कर लड़ते, तो शायद आज हमारा देश सबसे शक्तिशाली होता. दौर कोई भी हो लेकिन हमारे देश पर राजनीति हमेशा हावी रही है.

पानीपत की लड़ाई और उसके परिणाम से हम यह निष्कर्ष तो निकाल ही सकते हैं.


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