बात तब की है जब दूरदर्शन पे पहली बात जंगल बुक आया और लोगो ने मोगली को देखा। मोगली तो हिट हुआ ही लेकिन उससे भी ज्यादा हिट हुआ गाना जंगल जंगल बात चली है पता चला है चड्डी पहन के फूल खिला है। इस गीत को लिखा था गुलजार ने तो किस्सा यू है की जब गुलजार ने ये गीत लिखा तो डायरेक्टर ने कहा की बस चड्डी शब्द हटा दीजिये। क्युकी बच्चो का गाना है तो ये शब्द अच्छा नहीं लगता लेकिन गुलजार अड़ गए की ये शब्द तो नहीं हटेगा। अंत में डायरेक्टर को गुलजार की बात माननी पड़ी और इतिहास आपके सामने ही है। दरसल ये कहानी ब्रिटिश लेखक रुड्यार्ट कप्लिग की किताब जंगल बुक से। कहा जाता है की रुड्यार्ट कप्लिग ने ये कहानी एक सच्ची घटना पर लिखी थी। आइए जानते है असली मोगली की कहानी।
रुड्यार्ट कप्लिग १८८२ में भारत आये और कई साल यहाँ रहकर पत्रकार का काम किया। १८९२ में रुड्यार्ट कप्लिग अमेरिका गए और वह उन्होंने मोगली की पहली कहानी लिखी। १८९२ और १८९५ में उनके द्वारा लिखी गयी किताबो को जंगल बुक और जंगे बुक सेकंड के नाम से जाना गया। इसके बाद रुड्यार्ट कप्लिग दुनिया भर में रातो रात फेमस हो गया और उनकी किताबे खूब बढ़ी जाने लगी।
दरसल ये कहानी रुड्यार्ट कप्लिग ने भारत में ऐसे सच्ची घटना से प्रेरित होके लिखी थी।
रुड्यार्ट कप्लिग
एक ब्रिटिश अफसर हेनरी स्लीमेन ने अपने अवध प्रवास के दौरान ऐसे बच्चो का जिक्र किया है जिनको जंगल से पकड़ के लाया गया था। स्लीमेन के अनुसार तब भेडियो की बच्चो को उठा ले जाने की बात आम थी और आज के मध्य प्रदेश में सेओनी ऐसे घटनाओ के लिए मशहूर था। जहा जंगल भेड़िये गाओं में आके बच्चो को उठा ले जाते थे।
इसमें अधिकतर को मार के खा लिया जाता था लेकिन चंद ऐसे भी थे जो बच जाते थे। हेनरी स्लीमेन ने अपने लिखे में ऐसे ६ बच्चो का जिक्र किया है जो जंगल में भेडियो की मांद में पाए गए और सभी भेडियो की तरह जमीन पे हाथ और पैर रख के चलते थे और भेडियो की तरह आवाज भी निकलते थे। स्लीमेन ने एक बच्चे का जिक्र किया है जिसको पकड़ के लखनऊ में एक शाल व्यापारी को दे दिया गया था। भड़िये वहा भी उससे मिलने आते थे ऐसा कहा जाता है। व्यापारी का नौकर जो बच्चे की बगल में सोता था बतलाता था की रात को भिडिये बाड़े के अंदर घुस आते और उस बच्चे के साथ खलेते रहते। इस घटने के तीन महीने बाद बच्चा आबादी से भाग कर दुबारा जंगल में पहुंच गया और फिर उसे कभी देखा नहीं गया। हलाकि बाकि बच्चो की किस्मत ऐसे थी नहीं। उनको इंसानी तोर तरीके सिखाने की कोशिश की जाती लेकिन कोई भी पूरी तरह इंसानी परिवेश में ढल नहीं पाता।
मोगली
स्लीमेन के लिखे में चन्दोर छावनी के पास मिले एक बच्चे का जिक्र है जो इंसानो को अपने नजदीक नहीं आने देता था लेकिन कुत्तो से उसकी बच्ची बनती थी और खाना भी उनके साथ ही खाता था। इन बच्चो की मोत तीन साल के अंदर ही हो गयी थी क्योंकी ये बच्चे भेडियो की तरह हाथ पाव तक के चलते थे इसलिए इनकी कोहनी और घुटने एक दम शक्त हो गए थे। हेनरी स्लीमेन लिखते है की ये सभी बच्चे भेडियो की तरह गुर्राते थे और केवल कच्चा मास ही खाते थे।
जंगल से बहार लाने के बाद कुछ समय में इनमे से अधिकतर की मोत हो गयी सिवाय एक के। और इसका नाम था दीना शनेःशर। साल १८६७ की बात है। बुलंदसेहर के पास शिकारियों का एक गुट जंगल में निकला था और उनको एक गुफा दिखाई दी। ये गुफा भेड़िये की थी और अंदर से गुर्राने की आवाज आ रही थी। शिकारियों के लगा की आज का शिकार मिल गया और वो निशाना लगाने ही वाले थे की तभी उन्होंने देखा की गुर्राने वाला जिव एक इंसान का बच्चा है। बच्चे की उम्र उनको ६-७ साल की लगी और वो लोग बच्चे की उठा के शहर ले आये और आगरा के सिकंदरा अनाथ आश्रम में भर्ती कराया।
दीना शनेःशर
अनाथ आश्रम तब ईसाई मिशिनरी चलाया करते थे और चुकी बच्चा शनिवार को मिला था इसलिए उसका नाम रखा गया दीना शनेःशर।
दीना शनेःशर की कहानी इसलिए खाश है क्युकी इसकी कहानी पूरी तरह डॉक्युमेंटेड है और उसकी तश्वीरे भी उपलब्ध है अनाथ आश्रम के निदेशक के पत्र में लिखते है की जिस तरह वो चारो हाथपांव पे चलता है अचरज की बात है और कुछ भी खाने से पहले वो खाने को सूंघता है और फिर खाता है। और खाने में उसको कच्चा मास ही पाछा लगता था। अनाथाश्रम में दीना को को एक बच्चे की तरह पालने की कोशिश हुयी लेकिन लम्बे समय तक वो हाथ पैर पे भी चलता रहा।
कई सालो की कोशिश के बाद दीना ने कपड़े पहनना और पका भोजन खाना सीखा हलाकि की बात करना कभी नहीं सिख पाया और खाना सूंघने की आदत भी बनी रही। दीना २९ साल तक जीवित रहा उसके बाद टीबी से उसको मोत हो गयी।
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